गुंजित आवाज़ है हम।

महज़ कृपापात्र क्यूं बने रहे,
तुम्हारा अंश मात्र क्यूं बने रहे।
हक़ है जितना तेरा, उतना मेरा
फिर अमावस की रात क्यूं बने रहें।

हम भी श्रृंखला के हिस्सा है,
निर्मित समाज के किस्सा हैं।
क्यूं लटकाये हो किनारे पर,
क्या नीयत तेरी, क्या मंशा है।

कुछ तो मेरी भी गलती है,
जो इस हद तक तुम आ जाते हो।
कुछ तो मेरी कमज़ोरी है,
जो तुम इतना अकड़ दिखाते हो।

सोचो जिस दिन तन खड़े हुए,
अपनी बातों पर अड़े हुए।
क्या तुम मेरा कुछ कर पाओगे,
विश्वास है तुम डर जाओगे।

तुम कल थे और आज है हम,
निज कुटुम्ब के ताज है हम।
थम जाओ शांति की सीमा पर,
वरना गुंजित आवाज है हम।



शशि कांत दुबे